भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शब्दों की किरचें / अश्वघोष
Kavita Kosh से
मन में पड़े थे टूटे हुए शब्द
जब तक मैं उनको जोड़ता
चुभने लगीं शब्दों की किरचें
मुक्ति की छटपटाहट में
चिड़िया की तरह हाफँता मैं
सोचता रहा बचने की तरक़ीब
देता रहा दुहाई सम्बन्धों की
सहता रहा किरचों का वहशीपन
चाकू से भी तेज़
तकुए से भी अधिक नुकीली किरचें
बींधती रहीं मुझे अनहद तक
काश! मैंने न छुए होते टूटे हुए शब्द
तो वहीं पड़ी रहतीं किरचें
और अब तक तो उन पर
जम गई होती विस्मृतियों की धूल।