भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शब्दों की नदी में / नीरज दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने संभाल रखा है
तुम्हारा दिया हुआ-
गुलाब ।

जब तुमने दिया था
तब मैं नहीं जानता था
उसे लेने का मतलब ।

नहीं जानता था मैं
कि किसी को भी मिल सकता है
चाहे-अनचाहे अचानक
कोई भी गुलाब ।

अब तुम
मेरे अंतस के आंगन में
गुलाब के फूल के साथ जीती हो
और मेरे शब्दों की नदी में
इंतजार के साथ बहती हो ।

अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा