शब्दों की शक्ति के लिए / गुलाब सिंह
एक महासमर में
व्यतीत हुई ज़िन्दगी,
हार भी नहीं हुई
न जीत हुई ज़िन्दगी।
समय की प्रत्यंचा से छूटे सर
सीने पर पीठ पर सहे,
दिनों के अटूट सिलसिले
सागर की लहर-से बहे,
ज़हर की कहा सुनी
अमृत की सनसनी
बस यही प्रतीत हुई ज़िन्दगी।
पलकों के पास खिले स्वप्न-फूल
पंखड़ियाँ रंग-बिरंगी,
रेत का रिवाज झेलकर
रिक्त हुई टहनी तन्वंगी,
बागों के कहकहे
आगों के अजदहे
पल-पल विपरीत हुई ज़िन्दगी।
मिली हुई गर्म हथेली-से क्षण
मंगलाचरण-सी पहचानें,
आतुर संवाद पटकथा प्रभाव
आँसू तक फैली मुस्कानें,
सम्बन्धों के सिरे
टूट-टूट कर गिरे
अभिनय की प्रीत हुई ज़िन्दगी।
भाषा के खुशनुमा मुहावरे
अक्षर की उर्वरता पर उभरे
शब्दों की शक्ति के लिए जिए
शब्दों की मुक्ति के लिए मरे
माटी के कण न हुई
सुमिरन के क्षण न हुई
परदे के पीछे का गीत हुई ज़िन्दगी।
आगत की आहट अगवानी में
सुधियों के शीश महल टूटे,
इतिहासों के घने अंधेरे
सुबहों पर टीपते अँगूठे
आज गले से न लगा
कल किसका हुआ सगा
घूम फिर अतीत हुई ज़िन्दगी।
लेकिन हम साँसों के सरगम पर
खुशबू से लिखे गीत गायेंगे,
अन्तर की आग अनबुझी जो है
उसे प्रलय-पार तक जलायेंगे,
पाँवों को बल देंगे
राह को पहल देंगे
भले नहीं मीत हुई ज़िन्दगी।