शब्दों की संसद (कविता) / मंगत बादल
शब्दों की संसद, के अध्यक्ष
नेताजी ने
यह कहते हुये त्याग-पत्र दे दिया -
अब मैं बेइमानी और
भ्रष्टाचार का पर्याय हो गया हूँ
लोग अब मुझ पर विश्वास नहीं करते
इसलिये असहाय हो गया हूँ
मुझे अब संन्यास ले लेना चाहिए
यह मेरी आत्मा की आवाज है
उसी समय
एक कोने में बैठी आत्मा गिड़गिड़ाई-
श्रीमन्! मैं तो बोली ही नहीं
आप खामख्वाह नाराज हैं
लेकिन इसी बीच भाषण ने खड़े होकर
आत्मा को चुप कराया
और सम्मान सूचक शब्दों को दोहराया
फिर बोला-
मान्यवर! हमें एक मौका और दें
हम आपकी साख पुनः जमा देंगे
सच मानिय!
विरोध को भी
आपके खेमे में ला देंगे
जनमत हमारा है
हम वर्ग विशेष का
वायदों के बलबूते पर उद्धार करेंगे
और चुनाव की वैतरणी को
आश्वासनों की कपिला से पार करेंगे।
तभी आश्वासन बीच में बोल पड़ा-
क्षमा करें महोदय!
कपिला अब बूढ़ी हो चुकी है
कभी भी डूब सकती है
रही बात वायदों की
तो उन पर से
विश्वास का मुलम्बा छूट चुका है
और जहाँ तक विरोध का सवाल है
उसका संविधान के सम्बन्ध में
सुनहरा भ्रम टूट चुका है।
विरोध यह सुनकर बौखलाया
शेम-शेम चिल्लाया
और यह कहते हुये
उसने सारा दोष कुर्सी पर लगाया-
उसकी टांग अब
हर मामले में अड़ने लगी है
और व्यवस्था
गंदे पानी की तरह सड़ने लगी है
इस तरह
अब और सहन नहीं होगा
जनमत के नाम पर
यह ढोंग
अब और वहन नहीं होगा।
हम आन्दोलन बुलवायेंगे
उसने यदि साथ दिया
तो मध्यावधि करवायेंगे।
सत्ता अब
इमनजैंसी की बन्दूक दाग रही थी
और जनता भयभीत होकर
ताबड़तोड़ भाग रही थी।
अवसरवाद अब मैदान में आ गया
और सम्प्रदाय ने
हाथ में बर्छी उठाली
जिससे वह
सद्भावना की जड़ें काटने लगा।
भाषा की आँखों में तेजाब झोंककर
मुँह पर टेप चिपका दिया गया
और प्रचार
विभाजन के पर्चे बाँटने लगा।
निरन्तर राहत का अन्न खा-खाकर
कर्यू के पर्यावरण में
अफवाहें फैलाना
बोद्धिकता की जरूरी माँग हो गई
और दमन की चपेट में आकर
समाजवाद की तरफ बढ़ती हुई स्वतंत्रता
विकलांग हो गई।
अध्यक्ष के त्याग-पत्र से
संवैधानिक संकट खड़ा हो गया,
संसद भंग हो गई
और देश गहरी नींद में सो गया।