शब्दों के आततायी / गीताश्री
कहाँ से आए होंगे शब्दों के आततायी
जाने किस खोह में पले होंगे
कैसी हवा में ली होंगी साँसें
अकेले में रोते होंगे क्या
हँसना याद रहा होगा उन्हें
किसने थमाए होंगे उनके हाथों में
फूलों की जगह नुकीले पत्थर
अज्ञात है यह सब कुछ
उन आततायियों की तरह
लेकिन वे आते हैं
झुण्ड के झुण्ड
उनके हाथों में होते हैं शब्दो के लहूलुहान कर देने वाले पत्थर
बेदम हो जाने तक करते हैं प्रहार
सोचते हैं नष्ट हो जाएगी
-वह फिर से पनप जाती है
अपने मज़बूत पैरों से रौंदते हैं अरमान
सोचते हैं अब भूल जाएगी सपने देखना
वह नए सपने उगा लेती है
जहान की सारी रोशनियाँ उसके लिए बुझा कर
मान लेते हैं वे कि अब अन्धेरो से नहीं निकल पाएगी
वह खेलने लगती है चकमक पत्थरों से
सारी नसें दबा कर
ख़ुश हैं वे कि निकल गए होंगे प्राण
वह हवाएँ नथुनो में भर लेती है
वे नोंच लेते हैं सारे पंख
सोचते हैं भूल जाएगी सारी उड़ान
वह आकाश हो जाती है
बुझा कर सारी बाहरी आग
वह भूख पर जड़ देते हैं ताला
वह अक्षरों को घोंट कर पी जाती है
वे सपनों पर डाल देते हैं मुठ्ठी भर धूल
चाहते हैं बदरंग हो जाएँ सपने
वह आँधी हो जाती है
वे उठा देते हैं चारो ओर संशय की दीवारें
दूर कर देना चाहते हैं स्नेह से बढ़े हाथ
वह दीवार से लिपटी घास बन जाती है
एक दिन पहचान लिए जाएँगे वो
मारे जाएँगे अपने ही पत्थरों से
जीती रहेगी वह