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शब्दों के घाव / हरेराम बाजपेयी 'आश'
Kavita Kosh से
तलवारों के घाव महज गहरे होते हैं,
शब्दों के घाव बहुत गहरे होते हैं...
मन की गति से रहा भागता जिनके खातिर
उनके ही कदम हमारे हित ठहरे होते हैं।
गैरों को तो पहचाना जा सकता है।
अपनों के ही नकाब पहने चेहरे होते है।
मेरा पहाड़-सा दर्द दब गया जिनकी खुशियों में,
वे भी मेरी आहें सुनने में बहरे होते हैं।
जिनके लिए निछावर अपना सूरज भी कर डाला,
मेरे घर उनके ही भेजे कुहरे होते हैं।
तन (को) तो जो जकड़ा जा सकता है जंजीरों में
मन पर क्यों 'आश' बताओ पहरे होते हैं।