शब्दों के जाल / प्रभात कुमार सिन्हा
इन दिनों वे सपनों को जोड़ने वाले
शब्दों के जाल बुन रहे हैं
वे शब्दों को वशीकृत कर
ले जाते हैं पहाड़ों को घेरने वाले बादलों के पास
नीलोकच सागर के किनारे आने वाले
घुमन्तुओं की मोहक दुनिया की सैर कराते हैं
शब्दों को पिछलग्गू बनाने की
कवायद करते वे पसीने-पसीने हो रहे हैं
वे उन पेटों की बात नहीं करते
जिनमें राष्ट्राध्यक्ष लगातार सूखी टहनियाँ ठूंस रहे हैं
इन टहनियों की शाखाओं के
दृश्यपटल पर आने के साथ ही उन्हें
सपनों के सुन्दर मेहराबों से सजाना शुरू कर देते हैं
भूख से ऐंठने वाले आमाशयों की ओर
जाने वाले जुगनुओं के भी
पैर तोड़ने की अपनी अभिलाषा पूरी कर रहे हैं
भस्मीभूत करने वाले आक्रामक दीमकों से वे
हर हाल में पेट में ठुंसी हुई टहनियों को बचाना चाहते हैं
उनके जिगर में फैले
कीटनाशक से भीगे महीन स्वभाव को
महान बताने के लिये तैनात है आलोचकों का समूह
उनकी भाषा को
चिरन्तन सुगन्धियों का कोष बताते हुए
नहीं अघाता है आलोचकों का यह विशिष्ट समूह
हमारी सहायक क्रियाओं का अपहरण कर वे
प्रतीकों की बारिश करने लगे हैं
ऐसे प्रयास उन्हें
राष्ट्राध्यक्ष के हितु-मीतु बना रहे हैं
इधर तेजी से
भूख से ऐंठने वाली अंतड़ियों को उन्होंने
सुनहरे तारों से मढ़ना शुरू कर दिया है
शब्दों के मोहक जाल बुनने वाले स्वनामधन्य कवि
प्रसन्न हो रहे हैं।