शब्दों से 
पुकारती हूँ तुम्हें
तुम्हारे शब्द 
सुनते हैं मेरी गुहार। 
तुम्हारी हथेलियों से 
शब्द बनकर उतरी हुई 
हार्दिक संवेदनाएँ 
अवतरित होती हैं 
आहत वक्ष-भीतर
अकेलेपन के विरुद्ध। 
बचपन में साध-साधकर 
सुलेख लिखी हुई कापियों के काग़ज़ से
कभी नाव, कभी हवाई जहाज 
बनानेवाली ऊँगलियाँ 
लिखती हैं चिट्ठियाँ 
हवाई-यात्रा करते हुए शब्द
विश्व के कई देशों की धरती और ध्वजा को 
छूते हुए लिखते हैं 
संबंधों का इतिहास। 
तुम्हारे शब्द 
अंतरिक्ष के भीतर 
गोताखोरी करते हुए 
डूब जाते हैं मेरे भीतर।