शब्द-वेध / हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"
खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे?
ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे?
लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?
ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे?
"सूली ऊपर सेज पिया की", दीवानी मीरा! सो ले,
अपना देश वही देखेगा जो अशेष बलिदान करे।
जीवन की जल गयी फसल, तब उगे यहाँ दिल के दाने;
लहरायेगी लता, आग बिजली का तो सामान करे।
सबकी अलग तरी अपनी, दो का चलना मिल साथ मना;
पार जिसे जाना हो वह तैयार स्वयं जलयान करे।
फूल झडे, अलि उड़े, वाटिका का मंगल-मधु स्वप्न हुआ,
दो दिन का है संग, हृदय क्या हृदयों से पहचान करे?
सिर देकर सौदा लेते हैं, जिन्हें प्रेम का रंग चढ़ा;
फीका रंग रहा तो घर तज क्या गैरिक परिधान करे?
उस पद का मजीर गूँजता, हो नीरव सुनसान जहाँ;
सुनना हो तो तज वसन्त, निज को पहले वीरान करे।
मणि पर तो आवरण, दीप से तूफाँ में कब काम चला?
दुर्गम पंथ, दूर जाना है, क्या पन्थी अनजान करे?
तरी खेलती रहे लहर पर, यह भी एक समाँ कैसा?
डाँड़ छोड़, पतवार तोड़ कर तू कवि! निर्भय गान करे।
(1935 ई0)