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शब्द-शब्द-शब्द / अज्ञेय
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शब्द-शब्द-शब्द...बाह्य आकारों का आडम्बर!
एक प्राणहीन शव को छोड़ते हुए मुझे मोह होता है-फिर भी मैं समष्टि-जीवन की कल्पना कर रहा हूँ-और इस का अभिमान करता हूँ?
अरी निराकार किन्तु प्रज्वलित आग! इस भाव को निकाल कर भस्म कर दे! पुराने जीवन के जो चिथड़े मेरे नवीन शरीर से चिपके हुए हैं, उन्हें अलग कर दे। मैं पंक से उत्पन्न हुआ हूँ, तू अपने ताप से उसे सुखा दे-ताकि मैं इस विश्व-भाव में अपना व्यक्ति खो सकूँ-मैं भी उसी आग की एक लपट हो जाऊँ-कोई देख कर यह न कह सके, 'यह तू है-इतनी तेरी इयत्ता है!'
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932