शब्द और कविता / प्रमोद कुमार तिवारी
शब्दों की एक दुनिया रचने के भ्रम में
ख़ुद गढ़ा जा रहा था मैं।
प्राइमरी के बच्चों की तरह
हंगामा करते शब्द
दौड़ते-भागते-उछलते शब्द
आपस में धक्कां-मुक्की करते शब्द
कुछ बली शब्द खदेड़ देते अपने विरोधी को
कुछ बड़े बेशर्म, कर देते अपने बिरादर को बेदख़ल
कई शब्द करते नये अर्थों की माँग
आनाकानी करने पर लगा देते चपत
तो कुछ कहते बहुत हुआ भाई!
अब छुट्टी दे दो।
बेवफा निकला ‘प्रवीण’
आज भी उसकी याद में आँसू बहाती है ‘वीणा’
घमंडी कुशल कभी नहीं पूछता ‘कुश’ को
कुछ हजम कर लेते दूसरे का अर्थ
कई परतों के भीतर के गलियारे से झाँकती
अर्थ की बहुरिया चुपके से।
कुछ अर्थ दे जाते गच्चा
हम पकड़ते शब्द
और वह दूर डाल पर बैठा
दिखा रहा होता अँगूठा।
कुछ सूट-बूट पहन अंग्रेज़ मेम के साथ
नाचने को हो जाते तैयार
जूता ‘पनही’ को आँखें दिखाता
जैकेट मिर्जइ को डाँटता
जा भाग ‘होरी’ का साथ निभा
वह भी बेचारगी से कहता
ठीक है भाई, पेंसन दे दो।
कविता कुशल गृहिणी की तरह
मनाती एक-दूसरे को
कमजोर, उपेक्षित शब्दों को
देती विशेष स्नेह
खींच-खींच लाती कीचड़ सने धकियाये हुओं को
बिचारे मुँह-फाड़े देखते सजे-सँवरे हमजाद को
आँख मिचमिचा हकलाते हुए कहते अपनी बात
जिसे सुन खिल उठती कविता।
पर धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ती गई कविता
और भारी पड़ता गया बाज़ार।
अपनी सुविधा के हिसाब से
ताक़तवाले गढ़ने लगे शब्द।
भाषा की दुकान पर माँगता ‘आनंद’
रैपर के भीतर से निकलता ‘मज़ा’
एक शब्द का शानदार भाषण सुनकर
श्रद्धा से भरा पहुँचा
चमकदार खादीवाले के पास
पता चला साहित्यकार पी.ए. का लिखा
भाषण पढ़ रहा था डोमा उस्ताद।
अब डराने लगे हैं शब्द
कोई शब्द हाथ उठाए बताता है पूरब
कि कुर्ते के पीछे से निकला असली हाथ
दिखा रहा होता है पश्चिम
दोस्ती, भरोसा जैसे जाने-पहचाने
शब्दों के भी करीब जाने से पहले
ग़ौर से देखता हूँ
फिर एक लंबी छड़ी ले
सावधानी से पलटता हूँ उन्हें
लगता है पलटा हुआ शब्द
‘शब्द’ नहीं विषखोपड़ा है
जो पलट गया है
मुझे डँसने के बाद।