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शब्द और दलित / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
शब्द दलित दर्द को, वह जुबान दे दो
जो आह को सुन सके, वह कान दे दो
हर तिरस्कृत हृदय की कोमलता को
पुनः सम्मानित धरा पे पहचान दे दो
हमारी अस्मिता की कोई सीमा नहीं
इसकी व्यापकता को कोई नाम दे दो
पारदर्शी मेरे हृदय की उज्ज्वलता को
सहज स्वभाव में समता का पैगाम दे दो
जो चल सके धारा का गमन करते हुए
आंसू से समुद्री लहरों को उधार दे दो
शायद कह सकोगे मन की व्याकुलता को
झुर्रियां चेहरे की मिटाने की कमान दे दो
असंख्य तारे मेरा अंधेरा न रोक पायेंगे
व्यंग्य हाल पे मेरे चाँद की मुस्कान दे दो
जो हंस सके बेबसी पे उन्हें हंस लेने दो
मेरी उलझी कहानी उनके कान दे दो