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शब्द के ह्रदय में / पुष्पिता
Kavita Kosh से
आँखों के भीतर
नदी है
पलकें मूँदकर
नहाती हैं आँखें
दुनिया से थककर
ओठों के अंदर
वृंदावन है
चुप हो कर जीते हैं ओंठ
स्मृति सुगंध
तृषित होने पर
ह्रदय-धरा में
प्रणय-नियाग्रा
मेरे लिए झरता हुआ
लेकिन
तुम्हारे ही लिए
निर्झर को
'नियाग्रा' कहते हो
और मैं
तुम्हें
कल को
विहान पुकारते हो
और मैं
तुम्हें
वचन को
प्राण कहते हो
और मैं
तुम्हें
सुख को
मेरे नाम से जानते हो
और मैं
तुम्हें
सुख को तुम
मेरी हथेली मानते हो
और मैं
तुम्हें।