शब्द ज़ख़्मी हैं तो तुम्हारी ज़िद के कारण / नीलोत्पल
महमूद दरवेश के लिए
पुकारता हूँ
तुम्हारी कविता के ज़रिए...
यह एक उजाले वाली शाम...
मेरी साँसों की गिरफ़्त में
एक छटपटाता हुआ स्वर
समुंदर किनारे, रेत के धँसाव में
एक आवाज़
चीख़ती हमारे दरमियान
कोई लो
कोई रखो उसे अपनी जीभ पर
महसूस करो
हाँ, महसूस करो
वह घुल रहा हमारे रक्त में,
उन झुकी दूबों में
जिन पर पैर रख निकले हो तुम,
उन दहकती आँखों में
जहां गिर रही है तुम्हारे शब्दों की बर्फ़
तुम्हारे गीत सरहद चीरते
चिड़ियों की मानिंद
बैख़ौफ़ आ धमकते हैं हमारे दिलों में
आख़िर हम नाराज़ हों तो किस बात पर
हमारी नाराज़गियों में भी चहेते हो तुम
नदिया, दरख़्त, बादल, पहाड़, आसमान
पता पूछते हैं तुमसे मिलने के लिए
तुम्हारा पता हवाओं-सा
हर कहीं मौजूद
अंगूर की धार-सा तीखा और तेज़
तुम्हारा आज़ादी और मुक्ति का सपना
देख रही है यह दुनिया
किस तरह निसार तुम
मुल्क और अपने लोगों पर
तुम्हें सलाम!
घेरेबंदी जारी है हर कहीं
लेकिन हम जानते हैं
तुम्हारे जूझते-टूटते आदमी को
अगर शब्द ज़ख़्मी हैं तो
वह लगातार तुम्हारे संघर्श की ज़िद के कारण
तुम्हारी ज़िद
कब्ज़ा कर चुकी है कई-कई दिलों पर
हमारे गालों पर ठहरे जमे आँसू
तुम्हारे जज़्बातों की गर्मी से
पिघलने लगे हैं
हम फिर से सपने देखते हैं
हम तुम्हारी “उम्मीदवाली बीमारी से ग्रस्त” हैं
धरती चूम रही तुम्हारा माथा
सुनो, सुनो उसका जाना
मिट्टी के भीतर
जड़ों में