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शब्द जो ब्रह्मांड है / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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तुम बने हो वही
जो तुम्हें सबसे बुरा लगता है
तुमने चुना है वही
तुम चुने गये हो
उसी के लिए
तुम नही जानते
किसलिए
किसके लिए
और क्यों?
तुम ये भी नहीं जानते
कि तुम, तुम हो
तुम जानना ही नहीं चाहते
कि तुम, तुम हो
चुने जाने
चुनने और जानने के बीच
कितने दरवाजे हैं
कोई भी तो एक
खोल नहीं पाते
हर बार तुम्हें
उठाकर रख दिया जाता है
तुम समझते हो
तुम चल रहे हो
तुम मानते हो
कि तुम समझते हो
देखे हुए को
देखते हो बार-बार
जीये हुए को
जीते हो बार-बार
कैसे खोजोगे?
कैसे साधोगे?
कभी सोचो
सोची हुई सोच की जंजीरें तोड़कर
देखी हुई देखने की
भावना छोड़कर
कभी मिटाओ
इस स्लेट को
कि खुद कुछ लिख पाओ
कभी साफ करो इस तख्ती को
कि कर्ता भी ना कुछ लिख पाए
बस रहे झक्क सफेद
बिना किसी स्याही के
जिसमें होता है शब्द
शब्द जो गूँजता है
शब्द जो फैलता है
शब्द जो सिकुड़ता है
शब्द जो जन्मता है
शब्द जो गुजरता है
हो जाओ शब्दरहित
शून्यरहित
उससे भी पार
जो अवर्णनीय है
एक ऐसी इबारत
जो खुद को ही
पढ़े जाने की इजाजत नहीं देती।