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शब्द जो हमने गढ़े हैं / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
शब्द जो हमने गढ़े हैं
वे हमारी वेदनाओं से बड़े हैं
रची हैं जो पंक्तियाँ
उन यातनाओं में
जो कही जातीं नहीं
तमगी सभाओं में
बन्धु ! उनकी पीठ पर्वत पर
हमारे शब्द कर्मठ
देवदारों से खड़े हैं
शब्द जो हमने गढ़े हैं
शब्द के ध्वन्यर्थ के
झरने अनोखे हैं
तपी जीवन-दृष्टि के
उजले झरोखे हैं
ताप जिनमें कसमसाता है
देह पर जिनकी
सुबह से शाम तक कोड़े पड़े हैं
शब्द जो हमने गढ़े हैं
वे हमारी वेदनाओं से बड़े हैं