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शब्द मिले अनन्त तो क्यों प्रलापमय / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध

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नहीं उल्लास नहीं यह ब्रह्माण्ड, जो हो रहा प्रसार
चीखे़ हैं, है दुःख ही अनिवार अपरम्पार

है, अवश्य है कोई ईश्वर कण कण में व्याप्त
सखा नहीं, शत्रु है वह, जानो जो करो शिनाख़्त

युधिष्ठिर, क्यों निर्वाक्, ओ नीतिविशारद,
पीड़ाओं से देख भरा यह संसार लबालब

हजारों साल बाद कभी पूछूँगा
2009 में क्या हुआ था?
आदमी को सपनों के बाज़ार में ले जाता है जादूगर
आदमी को आज़ादी के सपने बेचता है जादूगर
आदमी की चिन्ता में बार बार कई कई बार लगातार रोता हुआ दिखता है जादूगर
आदमी को आदमी की परम्पराओं में ले जाता है जादूगर
आदमी को आदमी आदमी कहता
आदम को आदमी कहकर चिल्लाता है जादूगर

आदमी जानता है कि सपनों की खरीदारी आज दो और चार का कारोबार है
आदमी जानता है कि राष्ट्रीय झण्डा जिस पर लपेटा गया है वह एक जादूगर की
लाश है
आदमी जानता है कि दुःखों से भरा ब्रह्माण्ड है, दुःखों का समन्दर है,दुःखों का
पहाड़ है
आदमी जानता है कि सब कुछ गड्डमड्ड है, ख़याल गड्डमड्ड हैं, दुःख गड्डमड्ड हैं
आदमी जानता है कि सत्य असत्य है, विश्वास अविश्वास है, युक्ति युक्तिहीन है
आदमी जानता है कि जीवन सूचनाओं के ब्रह्मराक्षस की लीद है
एकमात्र
सत्य
जो सत्य
है
वह
है
भूख

दूर सफेद दीवारों पर चमकती धूप है
हवा के कण परस्पर दूर होते जा रहे
प्रकाश के साथ ताप का एहसास तरंगित हो रहा
ज़मीं से आस्माँ तक धधक रही है फिजाँ
एकमात्र सत्य
वह है भूख है जो सत्य
ज़र जोरू ज़मीन भर नहीं
यह भूख निगलती है खु़द को ही
क्रमशः और और विकराल बनती
कौन कह सकता है कि है उपजी
किस भूख से कौन सी कला
शृंखला कौन सी कौन सी विशृंखला
कैसा धर्म कैसा मर्म
यह ग़रीब की भूख नहीं जो चाहती अन्न गर्म
यह सत्य उस दुनिया का है
जहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं
फिर भी जैसे कुछ भी है नहीं
इस तरह दौड़े आते हैं लोलुप
आँखें अंतड़ियाँ शिश्न योनियाँ
सब कुछ चबा जाने पर भी जो नहीं मिटती
यह सत्य उस भूख का है

यह धरती रहने लायक नहीं है
यह धरती रहने लायक नहीं है

आ हा हा मैं कहाँ खो गया
इतनी बारिश होती रही
बूँदें टिप टिप बदन पर आ आ गिरतीं
और मैं कहाँ खोया रहा
कितनी बातें बूँदों से करनी थीं
यहाँ वहाँ हर जगह जो फल रहीं उलटबाँसियाँ
उनसे एक-एक कर सुननी थीं
मैं जाने कहाँ खो गया

हवाओं में जो चीख़ सुनते हो, वह बहार की गूँज है
बहार आयी है दुःस्वप्नों का बोझ लिए
बहार आयी है ख़बरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अन्तरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको ख़बर है

ढूँढ़ती कि शून्य में किस दरवाजे़ से वह अन्दर आए बहार आई है
अश्कों का बोझ लिए बहार आयी है

शायर के लफ्ज़ लिए कि नई रस्म है वतन में कि सर झुका के चलो बहार आई है
यहाँ कोई नहीं रहेगा सिफ़ वर्दियों के सिवा आर-पार
आदमी को तारों के पार रहना है और मुल्क है कि बँधा है तार-तार
मौत के सौदागरों को मिलते हैं तमगे
कि बहार आएगी तो वे सीना तान कर चलेंगे
बहार आई है दोस्तों, वादियों पर बिछ रही है, हत्यारों के तमगों को छू रही है और
चीख़ रही है
सुनो कितने तमगे हैं कितनी मौतें बहार पूछ रही है
कि कितनी मौतें और होंगी कि तमगों से भर जाएँगे वर्दियों के चप्पे चप्पे बहार पूछ
रही है
सुनो बहार की बद दुआ सुनो कि वर्दियाँ मिट जाएँगी धूल और खू़न की बदबू में
सड़ जाएँगी
रहेगा आदमी फिर फिर मरने को तैयार कि बहार का शृंगार करे कि त्योहार हो हो
नाच गान
हो आज़ादी।

एह शहेला
दुनिया जो पहले से बेहतर है आज
वह शहेला के होने से है
उसके जाने के बाद उतनी बेहतर दुनिया रह गई है
और और शहेलाएँ खिलखिलाती उड़ रही हैं नाच रही हैं
किसको किसको ख़त्म करेगा जादूगर पूछ आओ युधिष्ठिर
मरेंगी और शहेलाएँ चीखे़ होंगी और प्रसारित
यह हमारी सृष्टि की गतिकी है युधिष्ठिर

मरना तो है ही सबको
सजना है कंकालों से काइनात को
भस्म के अथाह जंजालों से
फिर भी आँसू हैं बहते
ऐसे ही आततायियों की गोलियों से भूनी जाओगी बार बार ओ शहेला
कल इशरत कल सोनी पूरी आज शहेला
अनगिनत नाम बन कर आओगी
इतिहास की भैरवी तान ढूँढ़ते
तुमसे टकराते रहेंगे हम

बहार आयी है ख़बरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अन्तरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको ख़बर है
हा हा, सीना फटा जाता है युधिष्ठिर
सीना फटा जाता है...

नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखे़ं हैं, है दुःख ही अपरम्पार
बेटियाँ तारीख़ में तबदील हो गयी हैं।
29 मई: सूरज उस दिन वाक़ई छिपा और अँधेरा वक़्त पर आया। अँधेरे के जाने
की तारीख़ नहीं आती। कोई बतलाता है कि साल गुज़र गया-एक और साल
आने को है। अँधेरे में ढूँढ़ता हूँ नई तारीखे़ं।

अँधेरे में सुनता हूँ जाने कितनी सदियों से चीख़ रही हैं आशिया और नीलोफ़र।

बेटियाँ तारीख़ में तबदील हो गयी हैं।

बेटियाँ बाग़ में जा रही हैं। मेहनती जवान बेटियों से मिलने उतर आये हैं रंगीले
अब धरती पर। बेटियाँ बहते नाले में पानी छलकाती हुई नाचती हैं क़दम-क़दम।
सुडौल चेहरों पर आँखें आपस में खेल रहीं हैं अनजाने ख़तरनाक खेल। पलकें उठीं
हुई हैं मतवाली। यौवन से उल्लसित नदी जंगल गाते हैं आने वाली आज़ाद सुबह
के गीत।

अँधेरा उतरता है, अँधेरे ने वर्दियाँ पहनी हुई हैं। अँधेरे के हाथों में बन्दूकंे हैं। अँधेरे
में चीख़ती बेटियाँ हैं।
एक फ़ारेनसिक विशेषज्ञ का कहना है कि वह तारीख़ है जब एक आज़ाद सुबह को
रोकने के लिए बेटियों को चीरफाड़ कर चबा रहे थे जानवर। युधिष्ठिर, कोई बिम्ब
बताओ, कविता को लीक पर लाओ। कुछ गीत सा हो, कुछ प्रगीत सा हो। कुछ
ऐसा कि आलोचक आत्मीय शब्द ढूँढ़ सकंे, कुछ तग़ज़्ज़ल हो, कुछ बात हो, कुछ
बात हो।

चीखें बेटियों की गूँजती रहीं पहाड़ों के बीच। बेचती रहीं चट्टानों को।

सदियों से उफन रही तारीख़ की गूँज उमड़ती चली है। जवान लड़कियों को
महाशून्य में धकेल धरती बंजर होती चली है।

हर दिन गुज़रता है
हत्यारों की सज़ा में एक दिन और कम हो जाता है
इस तरह लोकतन्त्र हँसता रहता है ख़ुद पर खु़द
1984 - 1992 - 2002 - 2991 - 2991 - 4891 - छुक छुक छुक
कि बसन्त का सामूहिक बलात्कार हो रहा है ख़बर आती है
सस्ते टिकटों पर फूलों की योनियाँ बिक रही हैं ख़बर आती है
कोई कहता है कि हर फूल होता है एक इनसान
मसला जा रहा है हर ओर इन्सान
देखो रीअल वर्चुअल गर्भवती औरतें नंगी नाच रहीं
सचमुच इस रात की कोई सुबह नहीं
गुड गवर्नेंस के सपनों में एक्स्टेसी जी रहे भले लोग हैं
चारों ओर सन्तुष्ट लोग हैं
कि हमेें इमेजिन्ड फ़ियर से घबराना नहीं चाहिए सन्तुष्ट लोग हैं

क्या करूँ, डरपोक हूँ, डरता हूँ
कहते हैं कि हिटलर का टेक्नोलोजी में कोई जोड़ नहीं था...

धरती बंजर होती चली है। भक्षकों की टाप से उड़ते हैं बवण्डर, काँपते हैं माँओं के
दिल। देर तक सुनाई ेती है आवारा कुत्तों की चीत्कार।

दो कुत्ते एक चट्टान पर
एक भूरा एक काला

परस्पर से दो फुट दूर लेटे हुए हैं
एक समान्तर विश्व है
जहाँ भूरे वाले कुत्ते का रंग काला है
वहाँ हो सकता है हत्यारे का रंग निहत सा
वहाँ कौन कुत्ते की मौत मरता है

पर मुझे किसी की मौत से क्या लेना
मैं नास्तिक
सृजन के अखिल नियम ही मेरे ईश्वर
मैं किसी की मृत्यु की कामना नहीं करता
काले या भूरे कुत्ते की तो क़तई नहीं

एक दूसरे में बदल सकते हैं पाकिस्तान हिन्दुस्तान भी
मसलन मैं हो सकता हूँ पाकिस्तानी
और परवेज़ हूदभाई हिन्दुस्तानी
प्रेम नफ़रत सब अदल-बदल सकते हैं
फ़ितरत हमारी कि बार बार उठ खड़े हो हम कहते रहे
कि हमारे समान्तर संसार में नफ़रत न होगी
न होगा वहाँ कोई ओसामा, बुश, मोदी

कोई तासीर इसलिए न मारा जाएगा
कि उसने मेरी बेटी के माथे पर है हाथ रखा
कि बेटियाँ वहाँ दौड़ती आएंगी
मेरे सीने से लिपट जाएंगी
और वापस लौट अपने नृत्यलोक में जाएंगीं
ता ता थेई थेई ता ता थेई थेई गाएंगी

महाविश्व के एक साल में दस ही मिनट मिले
तो क्यों मिले सन्तापमय
शब्द मिले अनन्त तो क्यों प्रलापमय
नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें़ हैं, है दुःख ही अपरम्पार
दुःखों के धमाके दुःख उबलते
दुःख तारे दुःख ग्रह दुःख ही जमते
दुःखी देश दुःखी परिवेश
रोता शिशु जैसा यह ब्रह्माण्ड है
यहाँ दुःख का नाम इतिहास है
दुःख ही ज्ञान विज्ञान विकास है
चलो किसी और सृष्टि की तलाश में
चलें

आवाजें इर्द-गिर्द घूमती मिटाती अपनी प्यास हैं
अशरीरी साँसों से भर जाता परिवेश है
मैं रोता रहता हूँ
रोते रोते ही
जड़ होता रहता हूँ
औरों का क्या खु़द का रोना भी
दिखता नहीं एक समय के बाद
मैं किस ज़िन्दगी की शुरुआत हूँ और किस का अन्त
कौन जानता है मुझे कौन है नाज़िर मेरा
यह मेरा मक़सद है मेरी नियति भी यही कि मैं
तमाम रस्मों के खि़लाफ उठ खड़ा हूँ
महज़ यह कहने कि मुझे चाहिए आज़ादी

मैं पत्थर फेंका जाता हूँ मैं मर्सिया जनाज़ों में गूँजता हूँ
अत्याचारियों की गोलियाँ जातीं मेरे आर-पार मैं सीना भूल जाता हूँ
हर किस के सर पर मैं मौत मँडराता ह ूँ
मैं ही जीवन मैं सपना घाटी की किशोरियों का हूँ
मैं तुम्हारे खि़लाफ़ अगस्त्य के समय से खड़ा हूँ
महज़ यह कहने कि मुझे चाहिए आज़ादी

आवाज़ों में अकसर कोई पहचानी तरंग होती है
क्षणिक कम्पन उँगलियों से उठकर हृदय के गहनतम कोनों में घूम आती है
और देर रात दूर क्षितिज तक गूँजती है
मैं जड़ होता रहता हूँ

इस तरह क्रन्दन प्रलाप में कहाँ छिप रहे हो
कोई सुबह सुबह चालीस सेकण्ड रोता है
उसका रोना महज़ एक संख्या
कौन है
सुबह सुबह खु़द को सहलाता
चालीस सेकण्ड बाद फोन कट गया
ब्रह्माण्ड सन्न-सा रह गया
क्या वह इसी ब्रह्माण्ड से आती आवाज़ थी
एक आवाज़ यूँ गुम हो गई
अनन्त काल तक अपनी अनदेखी पहचान रख गई

जो भी वह था, उस के अन्दर भी प्रलाप करता हूँ बैठा एक मैं
युवा कवियो, उसे छोड़ आओ गुड गवर्नेंस के चारों ओर बने पेशाबघरों में
कोई शब्द हत्यारे का विकल्प ढूँढ़ लो तत्सम में
और बुन लो एक कृत्रिम प्रेम कविता
हो सकता है केन्या युगांडा नाईजीरिया से भगा पैसा
थूक मैल में लिपटा वहाँ मनमोहनी गीतांे में हो रहा हो सुरबद्ध
हत्या बलात्कार के बीच आ हा हा हा आरोह अवरोह में सम्बद्ध
आदमी की आँखें नहीं हैं वहाँ
आदमी सूअर से बदतर है वहाँ
यश है वहाँ उन आधुनिक मन्दिरों में
वहाँ तमगे हैं तुम्हारे इन्तज़ार में

हा, हा सीना फटा जाता है
इस वक़्त सभी मुहावरे हैं नाकाम
युवा कवियो, हम कैसे अपनी पहचान करें
किधर हैं हम खड़े
अत्याचारियों के साथ या अपने ज़मीर के साथ
हम खड़े हों पर कैसे हों हम खड़े
जब प्रेम एक व्यर्थ ख़याल बन गया
हर कोई चमड़े का इंच-इंच बेच रहा
सामूहिक मैथुन ही बचा जीवन की परिभाषा में
युवा कवियो, हम कैसे अपनी पहचान करें

जिन्हें दिखता नहीं कि लोग मर रहे हैं
कि प्राण विलुप्त हो रहा है धरती पर से अनायास
वे कहते हैं कि मैं लिखता हूँ सायास
एक औरत मरती है सड़क किनारे इश्तिहार में
बच्चे हाँ बच्चे मरते हैं सड़क किनारे गू मूत में कीड़ों जैसे
आदमी मरता है निरन्तर सभ्यता में
बहुत कुछ बहुत सारे लोगों को नहीं दिखता
समस्वर चिल्लाते हैं वे देखो यह है सायास लिख रहा
जब कहता हूँ कविता नहीं है यहाँ
पूछते हैं कविता है कहाँ
क्यों लिखता है कोई बार बार
बुनता है शब्द जाल निरन्तर प्रलाप
विलाप विलाप विलाप विलाप