शब्द शीशे हैं / अनिता भारती
बहुत अच्छी तरह
आता है तुम्हें
शब्दजाल से खेलना
शब्दों से खेलते-खेलते
दूसरों को जाल में उलझा देना
लाते हो शब्द में धर्म
और धर्म में खोजते हो शब्द
बनाते हो शब्दो को
साम्प्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष
हिन्दू मुसलमान
औरत और मर्द
शब्दों को उनकी औकात से
देते हो वजन, आकार और रौब
शब्द डराते हैं
रुलाते है पीड़ा जगाते हैं
फूल से शब्द गुदगुदाते भी हैं
कभी-कभी शब्द
महज शब्द नहीं रहते
दर्द की दास्तान बन जाते है
मत खेलो शब्दों से
ये शब्द एक शख्सियत है
दुमछल्ले भी हैं
गर्व से ऐठे हुए भी हैं
भीगी बिल्ली से दुबके हुए भी
ग्लानि की आँच में
सिके हुए भी
मत करो बदनाम इनको
शब्द तो आखिर
शब्द है
जो हमारे दिल से निकल
तुम्हारे दिल में
उतर जाते हैं
शब्द शब्द नहीं,
चमकते शीशे हैं
जिसमें हम रोज़
अपने को चमकाते हैं