भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शब्द संसार / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उनका सजल सामीप्य
मेरी जिन्दगी के
दहकते मरु में
हरी पर्तें बिछाता है
नये पत्तों की
हरी पर्तें

अभिव्यक्ति का
मात्र माध्यम ही नहीं है
शब्द
इतने निकट आकर आदमी के

जगा कर,
पकड़ कर उंगली
मुझे
अनुभूति की पगडंडियों पर
शब्द ही चलना सिखाते हैं,
राह से कांटे हटाते हैं
नई राहें बनाते हैं

मात्र ध्वनि विन्यास ही
नहीं रह जाते शब्द
इतने निकट आकर आदमी के

जन्म से लेकर
चिता तक
रक्त बन कर
चेतना में सनसनाते हैं
सोवर में
जगाये गये दीपक की
सलोनी रोशनी में
दीपते हैं शब्द दग-दग
और फिर जब लौटते हैं शब्द
अगली रात
उनसे सोंठ हल्दी की
बधाई और सोहर की
कि माँ के दूध की
प्राक्तन गमकती गंध आती है
कुतूहल से खुली
नवजात आँखों में
समूची सृष्टि
झिलमिल जगमगाती है --
दगर-दग दीपते हैं शब्द
ध्वनि बन कर
कभी आकार बन कर
और माँ बन कर
दगर-दग दीपते हैं शब्द

शब्द का संभार
जैसे विपुल पारावार

दुनिया के
समूचे वाड्गमय का विपुल पारावार
मुझको अहर्निश
यह थपथपाता है
युगों के बाद फिर मुझको
मेरे कैशोर्य की
दुनिया दिखाता है
और
गेंदे की सुनहरी
क्यारियों की गंध
भर नासापुटों में
ले लुनाई चिनचिनाती सी
चने के खेत की
वहाँ छुप कर दूर से ही
वह खिलन्दड़
शब्द का संसार
फिर मुझको बुलाता है
मुझे अपना गाँव
रह-रह याद आता है

शब्द मुझसे बात करते हैं
ध्यान देकर
कान देकर
मुझे सुनते हैं

मुझे सुनकर
कभी वे मुस्कुराते हैं,
कभी वे कुछ नहीं कहते,
कभी वे
फेरते हैं हाथ सिर पर
पसलियों पर
और चिन्तातुर कभी
मंझधार की सी नाव जैसे
डगमगाते हैं

कि डगमग डोलते हैं शब्द
मुझको तोलते हैं शब्द
तब मन खोलते हैं शब्द

और
चिड़िया बन
कभी उड़कर एकाएक फुर्र से
जाने कहाँ जाते,
लौटते फिर चोंच में भरकर
कथा के सरित सागर
और
मेरे खुले मुँह की सम्पुटी में
छोड़ जाते
जिन्दगी का पंचगव्य

हंस की गरिमा लिये
आकाश को फिर भर रहे हैं शब्द
झर-झर झर रहे हैं शब्द
पावस में
शब्द-पावस में

गगन से झरती गिरा में
लहलहाते खेत
हरे रंग की सात आभायें
अभी मैंने यहाँ देखीं गिनीं
ठीक जैसे रंग भाषा का बदलता
चार या छै कोस पर
-- अरे
कितनी क्षिप्रगति से
भर रहे जल रंग
जीवन के पटल पर शब्द
रंगाघात करते शब्द
गति को मात करते शब्द
रंगनिनाद करते शब्द
नभ के गीत होते शब्द
शब्दातीत होते शब्द
बिजली ला रहे हैं शब्द
कजली गा रहे हैं शब्द
खेत निरा रहे हैं शब्द
अन्न उगा रहे हैं शब्द

भूखे जा रहे हैं शब्द
लुटते जा रहे हैं शब्द
पिटते जा रहे हैं शब्द
नेता खा रहा है शब्द
समय चबा रहा है शब्द
बचकर भाते हैं शब्द
रह-रह जागते हैं शब्द
तड़ से टूटते हैं शब्द
घट से फूटते हैं शब्द
मस्जिद तोड़ते हैं शब्द
मंदिर फोड़ते हैं शब्द
खुद को काटते हैं शब्द
खुद को बांटते हैं शब्द
अब पछता रहे हैं शब्द
धक्के खा रहे हैं शब्द
भ्रम से मुक्त हो कर शब्द
भय से मुक्त होकर शब्द
खुद को धो रहे हैं शब्द
जनमन की नदी में --

यह नदी उद्दाम
उनको सार्थक आकार देती है
उन्हें संगठित करती है
उन्हें व्याकरण देती है
उन्हें वह स्वप्न देती है
उन्हें वह सृजन देती है
उन्हें वह दृष्टि देती है
कि जिसमें
सृष्टि झिलमिल जगमगाती है

गर्म द्रव इस्पात जैसे शब्द
जो चाहे बना लो --
ध्वनि के समन्दर में
महाहिमखण्ड जैसे
तैरते हैं शब्द
जितना दीखते हैं
दस गुना उससे बड़ा
आकार उनका
अर्थ उनका

सभ्यता के शिखर से
स्खलित हो कर
शब्द जब तब लुढ़कते हैं
चले आते हैं
मचाते विकट तांडव
लास्य का सरगम
कि जिसके साथ
वे फिर गुनगुनाते हैं

कि
जनमन की नदी में
बह रहे हैं शब्द
खुद को गह रहे हैं शब्द
सब दुख सह रहे हैं शब्द
सब कुछ कह रहे हैं शब्द

अब फिर छा रहे हैं शब्द
घिरते आ रहे हैं शब्द
अब फिर गा रहे हैं शब्द
उड़ते जा रहे हैं शब्द
जैसे क्रौंच।