शब-रात-1 / नज़ीर अकबराबादी
क्योंकर करे न अपनी नमूदारी<ref>ज़ाहिरी</ref> शब्बरात।
चल्पक<ref>पूड़ी</ref>, चपाती, हलवे से है भारी शब्बरात॥
ज़िन्दों की है जुवां की मजे़दारी शब्बरात।
मुर्दों की रूह की है मददगारी शब्बरात॥
लगती है सबके दिल को गरज़ प्यारी शब्बरात॥1॥
शक्कर का जिनके हलवा हुआ वह तो पूरे हैं।
गुड़ का हुआ है जिनके वह उनसे अधूरे हैं॥
शक्कर न गुड़ का जिनके वह परकट लंडूरे हैं।
औरों के बैठे हलवे चपाती को घूरे हैं॥
उनकी न आधी पाव न कुछ सारी शब्बरात॥2॥
दुनियां की दौलतों में जो ज़रदार<ref>धनवान</ref> हैं बड़े।
क़न्दों<ref>शकर</ref> के हलवे, रोग़नी नाने<ref>चुपड़ी रोटी</ref>, नए घड़े॥
पहुंचाते ख़्वान<ref>थाल</ref> फिरते हैं नौकर कई पड़े।
जिं़दे भी राह तकते हैं, मुर्दे भी हैं खड़े॥
इन खूबियों की रखती है तैयारी शब्बरात॥3॥
ठिलिया, चपाती हलवे की तो सबमें चाल है।
अदना ग़रीब के तईं यह भी मुहाल<ref>कठिन</ref> है॥
काले से गुड़ की लपटी<ref>कोई सरेश नुमा सय्याल गिजा-बुरी किस्म का हल्वा जिसका क़िवाम गोंद या सरेश का सा मैला ओ नफरत अग्रेज हो, कु.न. शहवाज पृ. 44, आटे और गुड़ को मिलाकर तेल में पकाई हुई लपसी</ref>। कढ़ी की मिसाल है।
पानी की हांड़ी, गेंहू की रोटी भी लाल है॥
करती है ऐसी दुखिया पिसनहारी शब्बरात॥4॥
और मुफ़्लिसों<ref>गरीब लोग</ref> की है यह तमन्ना कि फ़ातिहा<ref>कुरान शरीफ की आयतें पढ़कर खाने का सवाब मृतक अज़ीज़ों की रूहों को भेजना, नियाज़ दिलाना</ref>।
दरिया पे जाके देते हैं बाबा की फा़तिहा॥
भटियारी के तनूर<ref>तन्दूर</ref> पै नाना की फ़ातिहा।
हलवाई की दुकान पे दादा की फ़ातिहा॥
यां तक तो उनपे लाती है नाचारी शब्बरात॥5॥
वारिस<ref>उत्तराधिकारी</ref> हैं जिनके जीते वह मुर्दे भी आनकर।
हलवे चपाती खूब ही चखते हैं पेट भर॥
जिनका कोई नहीं है वह फिरते हैं दरबदर<ref>दरवाज़े-दरवाजे़, लोकप्रचलित है कि शब्बरात को रूहें हलवा खाने के लिए दरवाजों से आ लगती हैं, अपने वारिस नहीं होते तो दूसरों के दरवाज़ों से लगती हैं</ref>।
औरों के लगते फिरते हैं कोनों से घर व घर॥
उनकी है खारी नोंन से भी खारी शब्बरात॥6॥
छोड़ें हैं लट्टू तोंबड़ी हरदम बनाके जो।
हाकिम का प्यादा कहता है यूं उससे तल्ख़<ref>नाराज़</ref> हो॥
कपड़े, बदन बचाके जो चाहो सो छोड़ दो।
छप्पर जलाओगे तो दिलावेगी सुबह को॥
तुमसे चबूतरे<ref>कोतवाली या थाना, उस काल में ऊंचे चबूतरे पर थाना बगैरह होता था</ref> में गुनहगारी शब्बरात॥8॥
फिरते हैं इश्क़ बाज़ जो लड़के की घात में।
टोंटा<ref>एक प्रकार की आतिशबाज़ी</ref> ही लेके देते हैं लड़के के हाथा में॥
महताबी<ref>मोमबत्ती के आकार की आतिशबाज़ी जिसे छोड़ने से चांदनी सी छिटक जाती है</ref> आके छोड़े हैं लड़के जो रात में।
क्या ज़रकियां<ref>सोने के वर्कों का चूरा</ref> सी छोड़े हैं हंस हंस के हाथ में॥
करती है काम उनके भी यूं जारी शब्बरात॥9॥
जो रंडीबाज हैं वह बहुत दिल में शाद हो।
क्या-क्या अनार<ref>एक आतिशबाज़ी, अनार फल के समान मिट्टी का एक पात्र, जिसमें लोहचून और बारूद भरा होता है और जिसके मुंह पर आग लगाने पर चिंगारियों का पेड़ सा बन जाता है</ref> छोड़े हैं बश्नी<ref>आश्ना, मित्र, यार, यह शब्द व्यसनी प्रतीत होता है</ref> हो रूबरू॥
ऐ बी! तुम अपनी कुल्हिया हमें छोड़ने को दो।
और चाहो तुम हमारा यह हतफूल छोड़ लो॥
हो जाए जिसके छूटते ही फुलवारी शब्बरात॥10॥
और जो बहारें हुस्न के हैं पाक बाज़<ref>सदाचारी</ref> यार।
गुलकारी<ref>फुलझड़ी</ref> छोड़े हैं जहां महबूब गुल अज़ार<ref>गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाला</ref>॥
कहते हैं उनको देख के आंखों में करके प्यार।
क्या चाहिए मियां तुम्हें हतफूल और अनार॥
तुम पै तो आप होती है अब वारी शब्बरात॥11॥
घनचक्कर<ref>गोलाकार मंे छूटने वाली आतिशबाज़ी</ref> अपने दम में कहीं चर्ख़ खाते हैं।
टोंटे हवाई<ref>चक्कर</ref> सींक कहीं क़हक़हाते हैं॥
ज़ींपट ज़पट पटाखे कहीं गुल मचाते हैं।
लड़कों के बांध ग़ोल कहीं लड़ने जाते हैं॥
करती है फिर तो ऐसी धुँआधारी शब्बरात॥12॥
आकर किसी के सर पै छछूंदर लगी कड़ी।
ऊपर से और हवाई की आकर पड़ी छड़ी॥
हो गई गले का हार पटाखे की हर लड़ी।
पांव से लिपटी शोर मचाकर क़लमतड़ी॥
करती है फिर तो ऐसी सितमगारी शब्बरात॥13॥
चेहरा किसी का जल गया आंखें झुलस गईं।
छाती किसी की जल गई बाहें झुलस गईं॥
टांगें बची किसी की तो रानें झुलस गईं।
मूंछें किसी की फुंक गई पलकें झुलस गईं॥
रक्खे किसी की दाढ़ी पै चिनगारी शब्बरात॥14॥
कोई दोस्तों को दिल में समझता है अपने गै़र।
कोई दुश्मनों से दिल का निकाले है अपने वैर॥
कहता है वां ”नज़ीर“ भी आतिश की देख सैर।
”यारब तू सबकी कीजियो बरसा बरस की ख़ैर॥
बेतरह कर रही है नमूदारी शब्बरात $॥15॥