शब को हमराह लिये बीते ज़माने मेरे / सुरेश चन्द्र शौक़
शब को हमराह लिये बीते ज़माने मेरे
कोई आता है दबे पाँव सरहाने मेरे
जब थी हर शाम हसीम दिन थे सुहाने मेरे
काश आ जायें पलट कर वो ज़माने मेरे
तेरा ग़म, तेरी लगन, तेरी तमन्ना, तिरी याद
ज़िन्दगी भर का है हासिल यह ख़ज़ाने मेरे
है वही दर्द, वही कर्ब, वही टीस अब तक
वक़्त भी भर न सका ज़ख़्म पुराने मेरे
जिस ने देखी मिरे होंठों की हँसी ही देखी
दिल के दुख —दर्द किसी ने भी न जाने मेरे
मुझसे बढ़ कर भी हैं इस शह्र में कुछ अहले—जुनूँ
क्यों हैं मौजूए—सुख़न सिर्फ़ फ़साने मेरे
कल शबिस्ताँ थे मगर आज हैं वीरान खंडर
क्या से क्या कर दिये क़िस्मत ने ठिकाने मेरे
घन—गरज इन में है लफ़्ज़ों की न इब्हाम कोई
दर्दो—एहसास के पैकर हैं तराने मेरे
नाज़ करती है वफ़ा जिन की वफ़ादारी पर
‘शौ़क़’! ऐसे भी हैं कुछ दोस्त पुराने मेरे
मौजूए—सुख़न=चर्चा का विषय ;शबिस्ताँ=शयनगार;इब्हाम=अस्पष्टता;पैकर=आकार