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शब रहे या सहर नहीं आता / नवीन जोशी
Kavita Kosh से
शब रहे या सहर नहीं आता,
वक़्त अब मेरे घर नहीं आता।
दिन का मैं चाँद रात का सूरज,
कुछ भी हो मैं नज़र नहीं आता।
धूप वो साथ ले के आता है,
उसका साया मगर नहीं आता।
बट तो जाता है वो भी हिस्सो में,
मेरे हिस्से में पर नहीं आता।
हाथ आता है हाथ में उसका,
गरचे शाने पे सर नहीं आता।
दिल में रक्खूँ भी और छुपाऊँ भी,
मुझ को ऐसा हुनर नहीं आता।
आ के बैठा है एक कोने में,
ख़्वाब भी आँख भर नहीं आता।
दोनों इक दूसरे से पूछते हैं,
‘क्यूँ उधर से इधर नहीं आता ?