भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शम्अ जलती है ता-सहर तन्हा / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
Kavita Kosh से
शम्अ जलती है ता-सहर तन्हा
हम को जलना है उम्र भर तन्हा
हो लिया साथ एक रस्ता भी
चल रही थी कोई डगर तन्हा
वाए मज्बूरियां मुहब्बत की
तुम उधर और हम इधर तन्हा
कोई साथी नहीं किसी का यहां
राहे-हस्ती से तू गुज़र तन्हा
सारे चालाक लोग बच निकले
तुह्मत आई तो मेरे सर तन्हा
वो जनम से नहीं है पागल, जो
बैठा रहता है मोड़ पर तन्हा
बाम-ओ-दर इस क़दर उदास थे कब
ज़िंदगी कब थी इस क़दर तन्हा
उड़ गए यक-बयक सभी पंछी
रह गया पेड़ सर-बसर तन्हा