भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शरणागत / सियाराम शरण गुप्त
Kavita Kosh से
क्षुद्र सी हमारी नाव, चारो ओर है समुद्व
वायु के झकोरे उग्र रुद्र रूप धारे हैं।
शीघ्र निगल जाने को नौका के चारो ओर
सिंधु की तरंगे सौ-सौ जिव्हाएँ पसारे हैं।
हारे सभी भाँति हम, तब तो तुम्हारे बिना
झूठे ज्ञात होते और सबके सहारे हैं।
और क्या कहें अहो! डुबा दो या लगा दो पार
चाहे जो करो शरण्य! शरण तुम्हारे हैं!
सुनसान कानन भयावह है चारो ओर,
दूर दूर साथी सभी हो रहे हमारे हैं।
काँटे बिखरे हैं, कहाँ जावें कहाँ पावें ठौर
छूट रहे पैरों से रुधिर के फुहारे हैं।
आ गया कराल रात्रिकाल, हैं अकेले यहाँ
हिंस्त्र जंतुओं के चिन्ह जा रहे निहारे हैं।
किसको पुकारें यहाँ रो कर अरण्य बीच
चाहे जो करो शरण्य! शरण तुम्हारे हैं!