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शरणार्थी: जीना है बन सीने का साँप / अज्ञेय
Kavita Kosh से
हम ने भी सोचा था कि अच्छी चीज़ है स्वराज
हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर
ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज
अपने ही बल के
अपने ही छल के
अपने ही कौशल के
अपनी समस्त सभ्यता के सारे
संचित प्रपंच के सहारे
जीना है हमें तो, बन सीने का साँप उस अपने समाज के
जो हमारा एक मात्र अक्षंतव्य शत्रु है
क्योंकि हम आज हो के मोहताज
उस के भिखारी शरणार्थी हैं।