भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरणार्थी / सुशीला सुक्खु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भीड़ से घिरी हुई
लेकिन बेहद अकेली
कितनी बेचैनी
डर से डर
जगह से जगह
देश से देश की भागदौड़
किसी एक जगह टिककर
रहना मुश्किल
कितना असहाय जीवन
सन्तुष्टि के लिए व्याकुल रहती
चंचल मन की भाँति
चाहकर भी घर लौट नहीं सकती
घर लौटने के इन्तजार में
शायद कभी लौट सकेगी
अपना सपना लेकर
लेकिन कब पता नहीं।