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शरणार्थी / सुशीला सुक्खु
Kavita Kosh से
भीड़ से घिरी हुई
लेकिन बेहद अकेली
कितनी बेचैनी
डर से डर
जगह से जगह
देश से देश की भागदौड़
किसी एक जगह टिककर
रहना मुश्किल
कितना असहाय जीवन
सन्तुष्टि के लिए व्याकुल रहती
चंचल मन की भाँति
चाहकर भी घर लौट नहीं सकती
घर लौटने के इन्तजार में
शायद कभी लौट सकेगी
अपना सपना लेकर
लेकिन कब पता नहीं।