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शरद ऋतु / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

शरद समय भौ कठिन विचारा। सुनहु श्रवण दे राजकुमारा॥
वरिस दिवस गत कुंअर न आऊ। अत दिन रहो कहां अरुझाऊ॥
वार वार विनवे कर्त्तारा। लेहु प्राण कै देहु कुमारा॥
एक दिवस धनि तावरि आई। घुर्मि परी घरनी मुरुछाई॥
लाग दशन नहि नयन उघारा। शो रोर भौ महल मंझारा॥

विश्राम:-

गौन कियो हम ताखन, रहि न सके तैहि वार।
अब लगि सुधि ना जानेऊ, कस धौं करु कर्त्तार॥204॥

अरिल:-

शरद दरद अति कुंअरि, जरद सब अंग भौ।
मास एक को पंथ वरिस दिन वीति गो॥
देहु मृत्यु कर्त्तार, वार जनि लावहु।
कै निर्मल निशि शरद सनेही लावहू॥

कुंडलिया:-

अवरि कथा नहि जानऊ, तावरि आई नारि।
भांवरि दे मुंइमें परी, सखियन अंग संभारि॥
सखियन अंग संभारि, नारि परबोधन देही।
धरनी धनि मिमि जिय, मिले नहि परम सनेही॥
नृपति महल मंह शोर, शोच सब भई वावरी।
हम हरि हरि करि चले, कथो नहि बनत आवरी॥

सवैया:-

शरद रजनी सरदार विना, सजनी गति कौन कहै धरनी।
निशि निर्मल देखि अकाश, कला, शशि फांस परो गर जो हरनी॥
अन्त समय न तुलान तहां, कछु जात नहीं करनी वरनी।
सखि प्राण पयान पठाव अबे, पिय संगहि जाय रहो धरनी॥

सोरठा:-

शरद ऋतुहावनि राति, ताके तार अंगार सो।
धरनी जरि वरिजात, सुरति अमिय सींचति रहै॥

चौपाई:-

ज्ञानमती को सुनि व्यवहारा। मैना को मुख निरखु कुमारा॥
मनमोहन मुख पंखि निहारा। चारिहु नयन चले जलधारा॥
पुनि कह कुंअर सुनो हितसारी। देव कवन गति करिह हमारी॥
दे विश्वास आस जेहि आये। तेहि की सुधि मनते विसराये॥
विधि मोहि परम पराछित लाये, तीनहुं ठाम कपट करिआये॥

विश्राम:-

प्रथमहिं मातु पिता संगहि, दूजै संगिन साथ।
तीजै ज्ञानमती धनी, कस करिहै रघुनाथ॥205॥