शरद की साँझ / मोहन अम्बर
कुछ गाने का है मन कुछ साँझ सिंदूरी है।
ग्वालिन की गगरी-सा सूरज तो डूब गया,
उजियारा धरती का प्रियतम था रूठ गया,
नक्षत्र पसीने से भीगा है नभ का तन,
सन्यासी-सा ध्यानी गुमसुम है सारा वन,
पर अब तक श्रमिक पवन करता मजदूरी है,
कुछ गाने का है मन कुछ साँझ सिंदूरी है।
वक्ता-कौओं का दल अनबोले उड़ता है,
सूदी-पूंजी जैसा अंधियारा बढ़ता है,
काले पीले बादल कुछ ऐसे गये सिये,
जैसे कि ग़रीबी ने दो चिथड़े जोड़ लिये,
यह उपमा एक दुखन लिखना मजबूरी है,
कुछ गाने का है मन कुछ साँछ सिंदुरी है।
गेंदे के फूलों-सी पीली-पीली तितली,
कुहरे से घबरा कर बगिया से लौट चली,
सरदी साँपिन जैसी करती है फुफकारें,
झोंपड़ियों का जीवन बैठा कुथली मारे,
इसका कारण कंचन देता न मजूरी है,
कुछ गाने का है मन कुछ साँझ सिंदूरी है।
मस्जिद के मुल्ले ने भेजी यों अल्लाई,
भटकी-भटकी गैया जैसे हो रम्भाई,
मन्दिर घड़ियाँ बोलीं दुखियों की भाषा सी,
दुर्दिन मारे दौड़े पत्थर के विश्वासी,
पूजन उनका पावन पर साध अधूरी है,
कुछ गाने का है मन कुछ साँझ सिंदूरी है।