भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी! / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी!
दूर गये कज्जल घन, श्यामल-
अम्बर में निखरी!
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी!

मन्द समीरण, शीतल सिहरण, तनिक अरुण द्युति छाई,
रिमझिम में भीगी धरती, यह चीर सुखाने आई,
लहरित शस्य-दुकूल हरित, चंचल अचंल-पट धानी,
चमक रही मिट्टी न, देह दमक रही नूरानी,

अंग-अंग पर धुली-धुली,
शुचि सुन्दरता सिहरी!
राशि-राशि फूले फहराते काश धवल वन-वन में,
हरियाली पर तोल रही उड़ने को नील गगन में,
सजल सुरभि देते नीरव मधुकर की अबुझ तृषा को,
जागरुक हो चले कर्म के पंथी लक्ष्य-दिशा को,

ले कर नई स्फूर्ति कण-कण पर
नवल ज्योति उतरी !
मोहन फट गई प्रकृति की, अन्तर्व्योम विमल है,
अन्धस्वप्न फट व्यर्थ बाढ़ का घटना जाता जल है,
अमलिन सलिला हुई सरी,शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,
छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की,

अनुभवमयी मानवी-सी यह
लगती प्रकृति-परी !

(अज्ञेय द्वारा सम्पादित प्रकृति-काव्य संकलन ‘रूपाम्बरा’ से)