भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शरद गेलै रस्ता भुलाय / कुमार संभव
Kavita Kosh से
शरद गेलै रस्ता भुलाय
बीजू बन में कागा बोलै
घर-ऐंगना जी हमरो डोलै,
काग के भाग सराहौं हम्में
अपना जानोॅ के वारौं हम्में,
ई शीत में आबी केॅ हमरोॅ
देलकै प्रीत जगाय,
शरद गेलै रस्ता भुलाय।
फूलोॅ में हाँसै छै
हाँसै कुहासा में,
हाँसी-हाँसी बोलै छै
आशा-निराशा में,
धूपोॅ में शरदें आबी केॅ
दुख सब देलकै विसराय,
शरद गेलै रस्ता भुलाय।
बगीचा में साँझें पड़ोकी बोललै
सुनथै रस्ता याद आबी गेलै,
कुनमुन ज़िया सें सीतें ठिठुरली
सोचै शरद पिया कैन्हें न ऐलै,
भगजोगनी भुकभुक आबी केॅ
शरदोॅ केॅ देलकै रस्ता देखाय,
शरद गेलै रस्ता भुलाय।