भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शरद शीत कनकनी / मुकेश कुमार यादव
Kavita Kosh से
शरद शीत कनकनी
गरम धूप तनी-मनी।
सरसौ फूलाय छै।
सभ्भे के सोहाय छै।
चना खेसाड़ी साग।
बोरसी केरो आग।
कम करै कनकनी।
गरम धूप तनी-मनी।
रंग-बिरंग के फूल खिलै।
बाग-बगीचा ख़ूब खिलै।
भौरा कली हिलै-मिलै।
भोरे-भोर बनी-ठनी।
गरम धूप तनी-मनी।
बच्चा दाँत किटकिटाय।
तिल-गुड़-मिठाई खाय।
बिना नहाय।
खेलै नन्हा-मुन्ना।
भालू-बंदर बनी-बनी।
गरम धूप तनी-मनी।
थर-थर कांपै।
कोय नञ् झांकै।
आपनो शरीर सब कोय झांपै।
ठंढी हांकै।
कौवा मैना डरै तनी-तनी।
गरम धूप तनी-मनी।
चारों ओर ख़ूब कुहासा।
गर्मी के नञ् बिल्कुल आशा।
भरै निराशा।
कुहरा कुहासा।
शरद शीत तनी-मनी।
धनियाँ रो चटनी।
खाय छै जखनी।
झूमै मन तखनी।
नाचे लागै तनी-मनी।
शरद शीत कन-कनी।