भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शरद सुहानोॅ लागतै की / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
घोघटोॅ लेने सूखापन रोॅ शरद सुहानोॅ लागतै की,
हरा भरा सब खेत केना के कहोॅ रूहानोॅ लागतै की।
पिंगल पढ़ने पिया जे ऐलै
मीट्ठोॅ बोली भेलै तित्तोॅ,
थकी हारी के सजनी सोचै
कैन्हें बचलोॅ छी जित्तोॅ
रात बढ़ी के हाँक लगाबै जान जहानोॅ जागतै की,
घोघटोॅ लेने सूनापन रो शरद सुहानोॅ लागतै की।
अभी अभी नवराती रो
पूजन करी केॅ ऐलोॅ छै,
आरो दिवाली परवैती के
गोॅड़ छठी के धोलोॅ छै,
हुक्का पाती खेलौं, डाला लेने डग-डग डगतै की
घोघटोॅ लेने सूनापन रो शरद सुहानोॅ लागतै की।
राखी बान्ही बहिन भाय से
वादा सब टा लै लेलकै,
हम्में फेनूं घुरी जे ऐभों
हमरा पराया नै कहभेॅ,
हँसी ठठाय के शरद बोललकै मौसम हमरा लाँघतै की,
घोघटोॅ लेने सूनापन रो शरद सुहानोॅ लागतै की।