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शरद सुहाय छै / मुकेश कुमार यादव
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सरसौ फूलाबे लागै, मन हरियाबे लागै।
सखी सब गाबे लागै, शरद सुहाय छै।
शीत बरसाबे लागै, धूप कम आबे लागै।
रात भी जगाबे लागै, मन भरमाय छै।
गोरी शरमाबे लागै, छोरी शरमाबे लागै।
चुड़ी खनकाबे लागै, फाटलो रजाय छै।
दिन-रात खाबे लागै, प्रीत भी जगाबे लागै।
रीत भी सिखाबे लागै, सखी घर जाय छै।
मन हरसाबे लागै, घर के सजाबे लागै।
चुनरी उड़ाबे लागै, प्रीत के देखाय छै।