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शरद / आग़ा शाहिद अली / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
क्या देख रहे हैं, जनाब, इस तरह
क्या नाप-तौल रहे हैं, मियाँ !
रंगों का कोई अन्दाज़ नहीं लगेगा, साहब
रूप बदल गया है चिनारों का
रंग-ढंग बदल गए, बदल गई काया
अब वे आग उगल रहे हैं
लपटों सी जल रही है उनकी छाया
आप देख सकते हैं
उनकी आँखों में झलक रही है घबराहट
छलक रही है शर्मिन्दगी और परेशानी
उलझन है मन में
ढलक रही है हैरानी ...।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय