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शराबी की सूक्तियाँ-61-70 / कृष्ण कल्पित

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इकसठ

अगर न होती शराब
वाइज का क्या होता
क्या होता शेख साहब का

किस कामा लगते धर्मोपदेशक?

बासठ

पीने दे पीने दे
मस्जिद में बैठ कर

कलवारियाँ
और नालियाँ तो
ख़ुदाओं से अटी पड़ी हैं।

तिरेसठ

'न उनसे मिले न मय पी है'

'ऐसे भी दिन आएँगे'

काल पड़ेगा मुल्क में
किसान करेंगे आत्महत्याएँ
और खेत सूख जाएँगे।

चौंसठ

'घन घमण्ड नभ गरजत घोरा
प्रियाहीन मन डरपत मोरा'

ऐसी भयानक रात
पीता हूँ शराब
पीता हूँ शराब!

पैंसठ

'हमन को होशियारी क्या
हमन हैं इश्क मस्ताना'

डगमगाता है श़राबी
डगमगाती है कायनात!

छियासठ

'अपनी-सी कर दीनी रे
तो से नैना मिलाय के'

तोसे तोसे तोसे
नैना मिलाय के

'चल खुसरो घर आपने
रैन भई चहुँ देस'

सड़सठ

'गोरी सोई सेज पर
मुख पर डारे केस'

'उदासी बाल खोले सो रही है'

अब बारह का बजर पड़ा है
मेरा दिल तो काँप उठा है।

जैसे-तैसे जिन्दा हूँ
सच बतलाना तू कैसा है।

सबने लिक्खे माफ़ीनामे.
हमने तेरा नाम लिखा है।

अड़सठ

'वो हाथ सो गए हैं
सिरहाने धरे-धरे'

अरे उठ अरे चल
शराबी थामता है दूसरे शराबी को।

उनहत्तर

'आए थे हँसते-खेलते'

'यह अन्तिम बेहोशी
अन्तिम साक़ी
अन्तिम प्याला है'

मार्च के फुटपाथों पर
पत्ते फड़फड़ा रहे हैं
पेड़ों से झड़ रही है
एक स्त्री के सुबकने की आवाज़।

सत्तर

'दो अँखियाँ मत खाइयो
पिया मिलन की आस'

आस उजड़ती नहीं है
उजड़ती नहीं है आस

बड़बड़ाता है शराबी।