भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शर्त / शंख घोष / मीता दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संन्यासी बन चुके हो समूचे ?
पूरी तरह ।

त्याग सकते हो सब ? राज़ी हो ?
उपेक्षा को उपेक्षा से ही
सहज ही लौटा सकते हो जड़ों तक ?

खोल दिया है समस्त द्वार ? और
ताल वीथिका ने निहित शीत की रात में देखी है आग
उस स्वच्छ जल में ?

तब आओ, इस बार, सब कुछ पकड़ो और खींचो
याद रखो, किसी भी हालत में और कहीं भी नही है तुम्हारा त्राण
जीत गए हो तुम शर्त ।


मूल बांग्ला से अनुवाद : मीता दास