शर्मनिरपेक्ष / विजय कुमार विद्रोही
कलम काष्ठ कठपुतली बनकर मटक रही चौबारे में
सकल शब्द समझौता करते सत्ता के गलियारे में
काव्यलोक की दशा देखकर ये मन डरने लगता है
जब सरस्वतीसुत नेता का पगवंदन करने लगता है
क्या वर्णजाल ही कविता को साकार बनाना होता है ?
भावशून्य शब्दों का बस आकार बनाना होता है ?
भारतवर्ष जहाँ शब्दों को ब्रह्मसमान बताया हो
महाकाव्य रचकर कवियों ने छंदज्ञान समझाया हो
पूजास्थल तक कवियों के छंद जहाँ पर रहते हों
देश जहाँ हम कवियों को सूरज से बढ़कर कहते हों
केवल अक्षरज्ञान मात्र से हम कवि बनने वाले हैं ?
दिवस दुपहरी सिर्फ जानकर हम रवि बनने वाले हैं ?
काव्यदशा को देखो परखो एक क्लेश रह जाता है
शून्य शून्य से मिलता केवल शून्य शेष रह जाता है
ब्रह्मअंश सा चित्त धरे हम छंदसृजन जब करते हैं
स्वच्छंद कलम आवेशित कर भावों में ज्वाला भरते हैं
शब्दों को मतिबिम्ब बनाते नई विमाऐं गढ़ते हैं
महाकुशा जिसके उर मंडित बस वो आगे बढ़ते हैं
हो कविता से प्यार यदि तो इन कर्मों पे शर्म करो
या फिर जाओ सत्ता के चुल्लू में जाकर डूब मरो
मेरी रचना का दंशन यदि मन में पीर उठाता हो
काव्यलोक के अवमूल्यन का सत्यचित्र दिखलाता हो
तो मेरे भावों को तुम अपना स्वर देकर पोषित कर दो
या फिर हिंदीशत्रु बताकर विद्रोही घोषित कर दो