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शर्म के बेजा लबादे से ज़रा बाहर आ / विजय 'अरुण'
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शर्म के बेजा लबादे से ज़रा बाहर आ
आ गया है तू मिरे दर पै तो अब अन्दर आ।
तिरा दरबान तो दरबान है, वह क्या जाने
इक फ़रिस्ता-सा है दर पर तिरे, तू बाहर आ।
हाँ ये आन्धी है जो आई तिरे पीछे पीछे
ले उड़ेगी तुझे मन्ज़िल को, न इस से घबरा।
- बुत तराशूंगा मैं क्या, वह तो है तुझ में मौजूद
बस जो ज़ायद है हटा दूं उसे, ओ पत्थर आ।
क्यों गई रूठ के, घर छोड़ के तू ऐ क़िस्मत
जोड़ के हाथ ये कहता है 'अरुण' अब घर आ।