शवयात्राओं में भी शायद ही जाएं। / महेश सन्तोषी
इस कदर बढ़ गई है अब हमारी व्यस्तताएँ
दूसरों की शवयात्राओं में भी हम शायद ही जाएँ।
जो बंध कर दूसरों के कंधों पर चल दिया
वह हमारी तराजुओं में अब क्या चढ़ेगा?
किस चीज का करेगा वह भाव, मोल
न ज़िन्दगी खरीद सकेगा, न मौत बेच सकेगा।
जिसका बाजार ही उठ गया, उसके जनाजे में क्या जाएँ?
बदल रहे हैं अब मूल्य मान्यताएँ।
क्या हुआ जो एक आदमी आज कम हो गया
बाजार में भीड़ तो कहीं कम नहीं हुई।
किस की मइयत थी जो अभी इधर से निकल कर गयी
पूछ लिया, काफी है, फुर्सत हुई।
अगर कोई रास्ता हो तो हम पीछे से निकल जाएँ,
ये मातमी जुलूस हमारे आगे-आगे क्यों जाएँ?
किससे पूछेंगे हम, और कौन बतायेगा हमें?
किसका जाना अच्छा, किसका बुरा हुआ?
ज़िन्दा रहना अब आसान नहीं है, ज्यादातर लोगों के लिए
जो जितना जिन्दा रह लिया, बहुत हुआ।
जो गये, फिर किसी के आँसू
पोंछने नहीं आये
अच्छा हुआ जो हमारी आँख में
किसी के लिए आँसू नहीं आये।