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शव / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
भीग रही है रुपहली चाँदनी, उस खर पतवार के भीतर,
हज़ारों मच्छरों ने बनाया है घर वहीं पर,
सोनमछली जहाँ खाती है कुटुर-कुटुर
मौन प्रतीक्षारत जहाँ रहते हैं नीले मच्छर,
निर्जन जहाँ मछली के संग-सा हो रहा चुपचुप
पृथ्वी के दूसरी ओर एकाकी नदी का गाढ़ा रूप,
कान्तार की एक तरफ़ नदी के जल को
बावला(जंगली घास) कास पर सोये-सोये देखता है केवल,
साँझ को बलछौंहे मेघ, नक्षत्र रति का अन्धकार
जैसे विशाल नीला जूड़ा बाँधे किसी नारी का हिलता सर,
पृथ्वी की अन्य नदी, पर यह नदी
लाल मेघ पीली चाँदनी भरी, इसे ग़ौर से देखो अगर
दूसरी कोई रोशनी और अन्धकार यहाँ नहीं रही
लाल-नीले और सुरमई मेघ-म्लान नील चाँदनी ही,
यहीं पर मृणालिनी घोष का शव
तिरता चिरदिन नीला, लाल, रुपहला, नीरव।