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शहजादी का चितकबरा प्रेम / विपिन चौधरी

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किस्से- कहानियों के पिटारे में बंद धूसर वक़्त की एक कब्र
कब्र में बैचैन रूह
और शाम का जम्हाई लेता उनींदा मौसम
इन्ही पलों के दरमियाँ इतिहास का सीना चौड़ा होते- होते रह गया
अचानक ही जब एक शहजादी की बैचेन रूह ने दाईं करवट ली
 
दौलतमंद, मगर उदासी से लबरेज़ शहजादी
उम्र का महकता हिस्सा अपने बीमार शहंशाह पिता की तीमारदारी में अर्पित करती शहजादी
महल की बारीक झिर्रीयों से बाहर अपने अरमानो के
सलमे-सितारे जडित सेहरे को ताकती शहजादी
प्रेम मे पंगी अपनी आत्मा के तारो से किसी के अंधेरे शामियाने को जगमगाती शहजादी
 
दुनिया के प्रेम विज्ञानी भी प्रेम मे ज्यादा छूट नहीं दे सके
उदार होने से पहले नक्सली बन हथियार उठाने से वे कभी बाज नहीं आये
प्रेम की अंतिम गति दुनियादारी के बोझ तले दफ़न होने की रही है
यही कारण रहा कि शहजादी का प्रेम भी वर्जित फल सा अनचखा ही रह गया
 
कुछ मामलो में समय और समाज अलग-थलग पड़ जाते हैं,
पर प्रेम के मामले में समय और समाज दोनों ने एक साथ अपने पाँव जोड़े
इन दोनों का चलन विज्ञान के हिसाब से चलने का रहा और
विज्ञान ने सदा ढोस और तरल चीजों का आदर करना सिखाया
 
प्रेम का मामला दूसरा था
न ठोस न तरल
प्रेम की सरंचना वाष्पीकरण की घेरदार प्रक्रिया के नज़दीक ठहरी
पहले तरल फिर वाष्प फिर तरल फिर वाष्प
 
आलिशान महल के भीतर बीमार शहंशाह पिता का वायदा था और
बाहर धड़कती- सांस लेती हुई शहजादी की चितकबरी दुनिया
दोनों मे दूरी जरुरत से कुछ जायदा ही थी
सो किसी साँझा रणनीत्ति की सम्भावना लुप्तप्राय हो चली
 
जब कभी महल के इर्द-गिर्द घूमता हुआ प्रेम गुनगुनाता तो
पिता के पलंग के नज़दीक बैठी शहजादी भाग कर कुरान की शरण लेती
कुछ पल सुकून के बाद
प्रेम फिर छोटे-छोटे शब्द बोलता, बंद पंखो की गौरया की तरह
हैरानी नहीं कि प्रेम और शहजादी दोनों की आँखों में नमी का स्थाई डेरा ताउम्र बसा रहा
 
प्रेम का आसरा अटारी पर बैठे कबूतर थे
जो दो दिलो के आपसी पैगाम बांचा करते
यू तो जहीन बेगम ने साहिबाबाद बाग़
और चांदनी चौक का खूबसूरत नक्शा ईजाद किया था
पर मन को मनाने की चीज़े दूसरी थी
 
कविता, चित्रकारी और नन्हें बच्चों (जिन्हें शहजादी कविता लिखना सिखाती थी) ने बिखरती शहजादी को संभाले रखा
अक्सर शाम को यादों की चौसर बिछती
और शहजादी अपनी जमा- पूंजी हारती जाती
 
वायदे अक्सर ही कठोर हुआ करते हैं
और इस बार एक पिता का बेटी से वायदा था
महल की चमक पर आंच न आने देने का
रुखसत होते हुए भी पिता अपना हक जताने से नहीं चुके
यह बिना हलाल किये बलि दिये जाने का मामला था
 
होना कुछ भी नहीं था और हुआ कुछ भी नहीं
समय ने शहजादी को बूढ़ा बना दिया और प्रेम को जवान
 
जब एक बीमार और बूढ़ी शहजादी महल में अकेली रह जाती है
तब उसकी कहानी, कविता मे रूपआंतरित होने को बाध्य होती है
फिर जब एक दिन कविता का दाना- पानी भी ख़तम हो जाता है तो
वह रूह मे ढल जाती है और
रूहें अक्सर बेचैन ही हुआ करती हैं
 
इधर भटकते हुये प्रेम को कहीं ठिकाना नहीं मिला
तो वह भी बरसों-बरस कब्र की सीली ज़मीन के भीतर बैठ
अपना हिसाब-किताब तय करता रहा
 
टनों मिट्टी के बोझ और
मौसमों की पुरज़ोर आवाजाही के बावजूद
प्रेम और रूह का तीखापन बरक़रार रहा
 
पर मृतआत्माओं की भी सीमा हुआ करती है
और यह सीमा एक करवट पर ख़त्म हो जाती है
तब प्रेम में अटूट आस्था रखने वालों को किसी रोज़
शहजादी की कब्र पर धूमिल सा लिखा हुआ कुछ संज्ञान में आता है
"प्यार तब भी गुनाह था
प्यार इस घड़ी भी गुनाह है
प्यार तब भी स्त्रियों की बपोती थी
प्यार आज भी केवल स्त्रियाँ की निजी सम्पति है'.