भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहरीले जंगल में सांसों / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएँ.....साँसें !


    कफ़न ओस का
    फाड़ बीच से
    दरके हुए क्षितिज उड़ जाएँ
    छलकी सोनलिया कठरी से
    आँखों के घड़िये भर लाएँ
चेहरों पर ठर गई रात की
राख पोंछती जाएँ, सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    पथरीले बरगद के साये
    घास-बाँस के आकाशों पर,
    घात लगाये
    छुपा अहेरी
    लीलटांस से विश्वासों पर
पगडण्डी पर पहिये कसकर
सड़कों बिछती जाएँ, सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    सर पर बाँध
    धुएँ की टोपी
    फरनस में कोयले हँसाएँ
    टीन-काँच से तपी धूप में
    भीगी-भीगी देह छाँवाएँ
पानी, आगुन, आगुन, पानी
तन-तन बहती जाएँ सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    लोहे के बावळिये काँटे
    जितने बिखरें
    रोज़ बुहारें,
    मन में बहुरूपी बीहड़ के
    एक-एक कर अक्स उतारें
खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर
तलपट लिखती जाएँ सांसें.....
शहरीले जंगल में सांसें.....


    हाथ झूलती
    हुई रसोई
    बाजारों के फेरे देती
    भावों की बिणजारिन तकड़ी
    जेबें ले पुड़ियाँ दे देती
सुबह-शाम खाली बांबी में
जीवट भरती जाएँ, सांसें
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएँ सांसें.....