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शहरे दिल हो के क़रिया-ए-जां हो / ‘अना’ क़ासमी

शहरे दिल हो के क़रिया-ए-जाँ हो
दर्द तेरा कहीं तो मेहमाँ हो

हम फ़क़ीरों को सब बराबर है
क़सरे शाही हो या बियाबाँ हो

चन्द ज़ख़्मों का क़र्ज़ क्या रक्खूँ
वार अबके हयात पैमाँ हो

अश्क मेरे गुहर भी हो जायें
काश आँखों को तेरा दामाँ हो

बेवफाई उसे है रास आयी
फिर वफ़ा करके क्यों पशेमाँ हो

है परीजाद की नज़र तुझ पर
अब ख़ुदा ही तिरा निगहबाँ हो