भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शहरों के सारे जंगल गुंजान हो गए हैं / तनवीर अंजुम
Kavita Kosh से
शहरों के सारे जंगल गुंजान हो गए हैं
फिर लोग मेरे अंदर सुनसान हो गए हैं
इन दूरियों की मुश्किल आँखों में बुझ गई है
हम आँसुओं में बह कर आसान हो गए हैं
ऐसी ख़मोशियाँ हैं सब रास्ते जुदा हैं
अल्फ़ाज़ में जज़ीरे वीरान हो गए हैं
तुम बर्फ़ में न जाने कब से जमे हुए हो
हम जाने किस हुआ का तुफ़ान हो गए हैं
जिस्मों की सर्दियों में फिर जल गए हैं रिश्ते
सब एक दूसरे के मेहमान हो गए हैं