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शहर अकबराबाद (आगरा की तारीफ़) / नज़ीर अकबराबादी

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शहरे सुखु़न में अब जो मिला हैं मुझे मकां।
क्यूं कर न अपने शहर की खूबी करूं बयां।
देखी है आगरे में बहुत हमने खूबियां।
हर वक़्त इसमें शाद रहे हैं जहाँ तहाँ।
रखियो इलाही इसको तू आबाद जाबिदां<ref>हमेशा</ref>॥1॥

हर सुबह इसकी रखती है वह नूरे गुस्तरी<ref>प्रकाश को फैलाने वाली</ref>।
शर्मिन्दा जिसको देख के हो अ़ारिजे़ परी<ref>अप्सरा के कपोल</ref>।
हर शाम भी वह मुश्के मलाहत<ref>कस्तूरी के सौन्दर्य</ref> से है भरी।
लैला की जाद<ref>घुंघराली केशराशि</ref> कर न सके जिसकी हमसरी<ref>समानता</ref>।
दिन रूए<ref>मुंह</ref> मेहरे<ref>सूरज</ref> तिलअतो<ref>दीदार दर्शन</ref>, शब<ref>रात</ref> जुल्फे़ महवशां<ref>प्रेम पात्र, दिन सूरज के चेहरे की रोशनी की तरह हं और रात प्रेमपात्रों की केशराशि की तरह हैं।</ref>॥2॥

बाग़ात<ref>बाग़ का बहुवचन, बहुत से बाग़</ref> पुर बहार, इमारात<ref>इमारतें</ref> पुर निगार<ref>चित्रों और नक्काशी के काम से भरी हुई।</ref>।
बाज़ार वह कि जिस पै चमन दिल से हो निसार<ref>निछावर</ref>।
महबूब<ref>प्रिय पात्र</ref> दिलफ़रेब<ref>दिल को लुभाने वाले</ref> गुलअन्दामो<ref>फूल जैसे सुकुमार और सुगंधित शरीर वाले</ref> गुलइज़ार<ref>गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाले</ref>।
गलियां कहीं है आपको गुलज़ार पुर बहार।
कूंचे कहीं हैं अपने तईं सहने गुलिस्ता॥3॥

आबो हवा के लुत्फ कोई क्या-क्या अब कहे।
देखो जिधर उधर गुल इश्रत<ref>खुशी के फूल</ref> हैं खिल रहे।
ईधर को क़हक़हे हैं तो ऊधर को चहचहे।
अशजार<ref>वृक्ष समूह</ref> बाग़ो शहर वह सरसब्ज़ लहलहे।
सब्जी को जिनके देख के हैरां हो आसमां॥4॥

हर फसल में वह होते हैं पाकीजा मेवाजात।
देखे तो फिर नबात<ref>वृक्ष समूह</ref> से कुछ आवे बन न बात।
शहद उनपे आठ पहर लगाये रहे है घात।
क़न्दो शकर भी दिल से फ़िदा होएं दिन और रात।
रहते हैं इनके वस्फ<ref>प्रशंसा</ref> में हर दम शकर फ़िशा<ref>शकर बिखेरने वाला</ref>॥5॥

बहरे चमन को देखो तो जैसे जमन की नह्र।
लाखों बहारें रखती है एक एक जिसकी लह्र।
कोई नहावे और कोई मुंह धोवे शाद बह्र।
इस पर हुजूम<ref>झुन्ड</ref> रखते हैं यूं साकिनाने<ref>निवासी</ref> शह्र।
शमशाद-सर्व होते हैं जूं नहर पर अयां<ref>प्रकट, ज़ाहिर</ref>॥6॥

दरिया<ref>नदी</ref> के पैरने का करूं वस्फ़<ref>गुण, प्रशंसा</ref> मैं रक़म।
तो बहरे सफ़हा<ref>पृष्ठों के समुद्र</ref> बीच लगे पैरने क़लम।
पैरें हैं इस रविश<ref>चाल, तरीका</ref> कि बहारों से हो बहम<ref>साथ-साथ, मिलकर</ref>।
सौ सौ चमन भरे हुए शबनम के दम बदम।
आ जाते हैं नज़र वहीं दरिया के दरमियां॥7॥

अहले शना<ref>पानी में तैरने वाले</ref> जो करते हैं सौ सौ तरह शना<ref>तैराकी</ref>।
लहरें निशातो-ऐश<ref>हास-विलास</ref> की उठती हैं दिल में आ।
मिलता नहीं किनार कुछ इश्रत के बह्र का।
साहिल<ref>किनारा</ref> पे जोशे ख़ल्क़ से मिलती नहीं है जा।
होता है वह हजूम भी एक बह्रे बेकरां॥8॥

यारो अ़जब तरह का यह दिलचस्प है मुक़ाम।
होते हैं ऐसे कितने ही खू़बी के अज़दहाम<ref>भीड़</ref>।
हर तौर दिल रहे है खु़श और तबा शाद काम।
मेरी ”नज़ीर“ दिल से यही है दुआ मदाम<ref>हमेशा</ref>।
बसता रहे यह शहर बसद<ref>बुरी नज़र से बचा हुआ</ref> अमन और अमां<ref>सुखचैन के साथ</ref>॥9॥

शब्दार्थ
<references/>