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शहर की भीड़ से भागूँ तो है सहरा दरपेश / निश्तर ख़ानक़ाही

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शहर की भीड़ से भागूँ तो है सहरा दरपेश
नफ़अ* के नाम पे इक और ख़सारा दरपेश

थक के बाज़ार से लौटा हूँ तो घर सामने है
यानी तन्हाई को इक और ख़राबा* दरपेश

शुक्र करता था कि बादल तो धुँए का गुज़रा
अब है इक आग उगलता हुआ दरिया दरपेश

लफ़्ज़ को चीरूँ तो इक मुर्दा सदाक़त* मौजूद
आँख खोलूँ तो है मरता हुआ लम्हा दरपेश

आइना सौंप रहा है मेरा चेहरा मुझको
जिससे भागा था ये दिल है वही नक़्शा दरपेश

1- लाभ

2-वीराना

3-यथार्थ