शहर की सुबह / अदनान कफ़ील दरवेश
शहर खुलता है रोज़ाना
किसी पुराने सन्दूक़-सा नहीं
किसी बच्चे की नरम मुट्ठियों-सा नहीं
बल्कि वो खुलता है सूरज की असँख्य रौशन धारों से
जो शहर के बीचों-बीच गोलम्बरों पर गिरती हैं
और फैल जाती हैं उन तारीक गलियों तक
जहाँ तक जाने में एक शरीफ़ आदमी कतराता है
लेकिन जहाँ कुत्ते और सुअर बेधड़क घुसे चले जाते हैं
शहर खुलता है मज़दूरों की क़तारों से
जो लेबर-चौकों को आरास्ता करते हैं
शहर खुलता है एक शराबी की तनी आँखों में
नौकरीपेशा लड़कियों की धनक से खुलता है
शहर, गाजे-बाजे और लाल बत्तियों के परेडों से नहीं
बल्कि रिक्शे की ट्रिंग-ट्रिंग
और दूध के कनस्तरों की उठा-पटक से खुलता है
शहर रेलयात्रियों के आगमन से खुलता है
उनके आँखों में बसी थकान से खुलता है
शहर खुलता है खण्डहरों में टपकी ओस से
जहाँ प्रेमी-युगल पाते हैं थोड़ी-सी शरण
शहर खुलता है गन्दे सीवरों में उतरते आदमीनुमा मज़दूर से
शहर भिखमँगों के कासे में खुलता है; पहले सिक्के की खनक से
शहर खुलता है एक नए षड्यन्त्र से
जो सफ़ेदपोशों की गुप्त-बैठकों में आकर लेता है
शहर खुलता है एक मृतक से
जो इस लोकतन्त्र में बेनाम लाश की तरह
शहर के अन्धेरों में पड़ा होता है
शहर खुलता है पान की थूकों से
उबलती चाय की गन्ध से
शहर खुलता है एक कवि की धुएँ से भरी आँखों में
जिसमें एक स्वप्न की चिता
अभी-अभी जल कर राख हुई होती है ...