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शहर के अधियार में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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फँस गया हूँ आज आखिर चाँदनी के ज्वार में ।
राम ही रक्षा करेंगे गन्ध पारावार में

तृप्ति के सोपन अब तो शेष कोई है नहीं
ढूँढता मन भृंग क्यों रंग पारावार में ।

मुक्ति का हल्का मधुर आनन्द लगता लुट रहा
दब रहा पंछी निरन्तर चिन्तनों के भार में ।

मूल्य निश्चित हो न पाया था कभी जिनका यहाँ
मुस्कुराहट के मधुर मोती बिके बाजार में ।

प्राण रक्षा के लिए हरपल रहा जो साथ में,
जग न पाया पर कभी भी मोह उस हथियार में,

रत्न हो पर पी रहे हो व्यर्थ में कुण्ठा गरल
गरल पीना है पियो, पर लोक के उपकार में

फिर जगी आशा किरण है संकटों के दौर में
आ रहा है साधु कोई शहर के अँधियार में ।

वह गया था बाग का उपचार करने के लिए
हो गया घायल गुलाबों की सुगन्धित मार में