शहर के कदमों पर मरती नदी का विलाप / मनोज श्रीवास्तव
शहर के कदमों पर मरती नदी का विलाप
धूप-छांव के
बारहमासे संगीत में
खोया हुआ शहर
इत्मिनान से चौराहों पर,
माडलिंग करने वाली औरतों की
नस्ल वाली लौंडियों से
छेडखानी करते हुए
निपटा रहा हैं सदियां
पलकों में
हवा की पिठकुइयां सवारी करके
गैर-सामाजिक परिवर्तन का जुलूस देखते हुए
कत्लेआम वाले मोहल्ले की गली पार कर
फ़िल्मी शूटिंग वाले पंडाल में
सेक्स का आम चिचोरते हुए
वेश्यालयों के कूडेदान में
शुचिता की गुठली डाल रहा हैं
धुआये शोर-शराबो की
बदबूदार पोशाक पहन,
अपने लादेनी कदमो तले
दम तोड रहे
मिमियाते गांवो को कुचल-मसल रहा है
हां, याह कैक्टसी गबरू शहर
मेरी जर्जर बांहो में निडर
अपनी विष-बुझी जडे
चुभो-चुभो कर,
अपनी हबशी भुजाओं में खींच
और दैत्याकार जिस्म से दबोच
शिवालय की निचाट छाया में
मेरा घातक बलात्कार कर रहा है
फिर, जूठे पत्तल-सा तिरस्कृत कर
दोबारा पछुआ हवाओं से
कामोन्मत्त होने तक,
वह चला जा रहा है अनवरत
पार्कों, विहारों, उद्यानों में प्रेमयोगरत
उदार-तन, उदार-मन मादाओं के साथ
और समय को झांसा देते हुए
अप्रासंगिक वर्तमान को
खदेड़े गए अतीत के
डस्टबिन में डाल रहा है,
कई सौ सालों के
बराबर की छलांग लगाने के लिए
सारे अतिमानवीय हथकंडे अपना रहा है
पर, मैं इन सतत यातनाओं से मरणासन्न
लेती रहूँगी यहाँ खिन्न-मन,
यादाश्त के घर्र-घर्र चलते रहने पर
कुछ मीठी पौराणिक यादों में खोने की
दमतोड़ कोशिश करती रहूँगी,
आख़िरी सांस तक
इस शहर के काले करतूतों से
जूझती रहूँगी.