भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर के लोग जुदा, शहर का किरदार जुदा / रमेश तन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
शहर के लोग जुदा, शहर का किरदार जुदा
मैं कि खुद सबसे अलग हूँ मिरा संसार जुदा।

साथ चलते हैं मगर रखते हैं किरदार जुदा
काफ़िला अपनी जगह काफ़िला-सालार जुदा।

शहर दर शहर हैं तखरीब के आसार जुदा
आदमी अपनी अना का है गिरफ्तार जुदा।

शहर का शहर है सैलाब से मिस्मार जुदा
उस पे भी सब से खिंचा फिरता है बेकार जुदा।

क्या कहें उसके तशख़्खुस की हैं कितनी परतें
जब भी देखो तो नज़र आता है हर बार जुदा।

वो कभी खुद को खबर-तश्ना न रहने देता
रोज़ चेहरों को तो पढ़ता ही था , अखबार जुदा।

रंज की अपनी हक़ीक़त है खुशी की अपनी
रंग आंसूं का जुदा, रंगे-गुलो-ख़ार जुदा।

दिल के सौदे में परेशान ही रहते हैं लोग
बेचने वाले जुदा, और खरीदार जुदा।

अहमियत घर की हुआ करती है घरवालों से
वरना वीरान खण्डर हैं दरो-दीवार जुदा।

फिर वही शोरो-शगब सैदगहे-इश्क़ में है
फिर हबीबों से हुआ कोई सरे-दार जुदा।

बस कि डरती है ज़माने की हवा से वरना
शाखें उरियां से है कब शाखे-समरदार जुदा।

सब की नज़रों में बुरा बनने की क़ीमत मालूम
खुद को गुस्ताख़ भी कहलाओ, गुनहगार जुदा।

कौन जाने कि है क्या उसकी सियासत इस में
साथ इक बार चलेगा भी तो सौ बार जुदा।

जाने तुम फिर भी जिये जाते हो 'तन्हा' कैसे
इक तो आंखों का है दुःख, उस पे हो बीमार, जुदा।